Friday, September 30, 2011

adwait marg

हम हैं ताना हम हैं बाना।
हमीं चदरिया¸ हमीं जुलाहा¸ हमीं गजी¸ हम थाना।

नाद हमीं¸ अनुनाद हमीं¸ निश्शब्द हमीं¸ गंभीरा
अंधकार हम¸ चांद–सूरज हम¸ हम कान्हां¸ हम मीरा।
हमीं अकेले¸ हमीं दुकेले¸ हम चुग्गा¸ हम दाना।

मंदिर–मस्जिद¸ हम गुरुद्वारा¸ हम मठ¸ हम बैरागी
हमीं पुजारी¸ हमीं देवता¸ हम कीर्तन¸ हम रागी।
आखत–रोली¸ अलख–भभूती¸ रूप घरें हम नाना।

मूल–फूल हम¸ रुत बादल हम¸ हम माटी¸ हम पानी
हमीं यहूदी–शेख–बरहमन¸ हरिजन हम ख्रिस्तानी।
पीर–अघोरी¸ सिद्ध औलिया¸ हमीं पेट¸ हम खाना।

नाम–पता ना ठौर–ठिकाना¸ जात–धरम ना कोई
मुलक–खलक¸ राजा–परजा हम¸ हम बेलन¸ हम लोई।
हम ही दुलहा¸ हमीं बराती¸ हम फूंका¸ हम छाना।

हम हैं ताना¸ हम हैं बाना।
हमीं चदरिया¸ हमीं जुलाहा¸ हमीं गजी¸ हम थाना।

Thursday, September 29, 2011

कैलाश गौतम इलाहबाद की रचना -

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हक़ीम देखकर
गिरवी राम-रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै-जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा ज़ुनून देखकर
गंजे को नाख़ून देखकर
उज़बक अफ़लातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
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Sunday, September 11, 2011

वरिष्ठ साहित्यकार प्रेमबाबू 'प्रेम' का लोकप्रिय गीत-

हम ऐसे करम कर रहे हैं ,धरम की झुक रही ध्वजा।
फिर कोई भरत लेके आओ, टूट रही दाहिनी भुजा ।
आँखों में कैसा ये मोतिया ,कबिरा की चुनर खो गयी।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥

ऊषा ने जाने क्या पी लिया, भटक रही भोर की किरण।
साँसों की साधना थकी थकी , भूल गए चौकड़ी हिरन।
राम जाने कौन सी घड़ी है , सुधियों की साध खो गयी ।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥१॥

रिश्तों की पगडंडी छोड़कर, नवल किरण दौड़ने लगी।
आँचल के बचपन की सिहरने,ममता से जा रहीं ठगी ।
उन्मादी अर्थ के नगर में व्यर्थ की नजीर बो गयी ।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥२॥

विधि ने जो सर्जना नहीं की,हमने वो काम कर लिया ।
मेले में सोनजुही बो कर , संयम नीलाम कर दिया ।
सर्जनाओं की असीम वृद्धि से वर्जना ही आम हो गयी।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥३॥

निर्णायक आसन पे बैठ के भ्रमित हुई कलम की मती ।
जाने वह कौन सा प्रभाव है हेम हिरन चाहते जती ।
'प्रेम' ने तो जागरण किये मगर मेधा चुपचाप सो गयी।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥४॥

अंधियारी की काली चूनर उजियारी ओढने लगी।
मौसम के मन मिजाज़ फीके बदरी घर छोड़ने लगी।
पारिजात इस क़दर गिरे हैं धरती बदनाम हो गयी ।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥५॥ 09412880006

Friday, September 9, 2011

तजुर्बा

कवि मनोज की कलम से
मुसीबत में भी जीने का बहाना ढूंढ लेते हैं
कड़कती बिजलियों में आशियाना ढूंढ लेते हैं
तजुर्बा जिन्दगी का सीखना है उन परिंदों से
जो कूड़े में पड़ा गेहूं का दाना ढूंढ लेते हैं । -कुमार मनोज 9410058570

तजुर्बा

कवि मनोज की कलम से
मुसीबत में भी जीने का बहाना ढूंढ लेते हैं
कड़कती बिजलियों में आशियाना ढूंढ लेते हैं
तजुर्बा जिन्दगी का सीखना है उन परिंदों से
जो कूड़े में पड़ा गेहूं का दाना ढूंढ लेते हैं । -कुमार मनोज 9410058570

Wednesday, September 7, 2011

फिर सोचो

इन बूढ़े और थके हुए नेताओं व नौकरशाहों से अब और ज्यादा उम्मीद करना शायद बेईमानी होगी । राजनीति में अच्छे लोगों का आना बहुत जरूरी है साथ ही नौकरशाही में भी ऐसे लोगों की जरूरत है जो तेजी से कुछ बेहतर कर सकें । देश की दिशा और दशा तो यही निर्धारित करते हैं । युवा पीढी से निवेदन है क़ि विदेश भागने और मल्टी नेशनल कम्पनी में जाने के पहले एक बार फिर से सोंचें । परेशानियाँ तो आयेंगी ही लेकिन कब तक उनसे डरते रहेंगें ?

निर्झर जी की कलम से -

नारायण दास निर्झर जी {शिकोहाबाद (09758945957) }
की कुछ अनमोल पंक्तियाँ -

कुटी में संत की महलों सा परकोटा नहीं होता
यहाँ पर शाह सूफी में बड़ा छोटा नहीं होता
ये कैसे संत हैं जिनसे न माया छूट पाती है
जो सच्चे संत हैं उन पर तवा लोटा नहीं होता .

Friday, September 2, 2011

रंग जी का सन्देश

जैसा मोबाइल पर सन्देश मिला -

या तो कह दो क़ि आशिक़ी कम है
या चले आओ जिन्दगी कम है
- दीना नाथ द्विवेदी "रंग"
प्रसार प्रशिक्षण अधिकारी गोंडा उप्र
09935094830