Thursday, April 14, 2022

सतुआ संक्रांति

 सतुआ संक्रांति

जिस तरह मकर संक्रांति पूरे भारत में धूम धाम से मनाई जाती है उसी तरह जब सूर्य देव मेष राशि में प्रवेश करते हैं तो सतुआ संक्रांति मनाई जाती है। माना जाता है कि इस दिन से शुभ कार्य प्रारम्भ हो सकते हैं। भारतीय जन जीवन में फसलें त्यौहार और त्यौहार फसलों के पकने से जुड़े हुए हैं। फसलें मौसम आधारित हैं और मौसम सूर्य और उससे उत्पन्न ताप से प्रभावित होता है इस तरह सूर्य देव प्रकृति और जीवन की शैली को नियंत्रित करते रहते हैं.
सतुआ संक्रांति उत्तर भारत का प्रसिद्ध त्यौहार रहा है फ़िलहाल आधुनिक जीवन शैली में यह गांव और लोक मान्यताओं में अब भी धूम धाम से मनाया जाता है। सतुआ या सत्तू खासकर जौ और चने को भूनकर और पीसने के बाद मिलाकर बनाया जाता है। कुछ जगह दोनों को अलग -अलग ही रखते हैं। सत्तू के व्यंजन सदियों से लोकप्रिय रहे हैं जिनमें से बाटी या लिट्टी सर्व सुलभ है। कहते हैं कि लम्बी दूरी की यात्रा के लिए एक ऐसे भोजन की तलाश थी जो धूप ,गर्मी ,बरसात की नमी से ख़राब न हो और कई दिनों तक चले। सत्तू इस प्रयोग की तलाश का आविष्कार कहा जा सकता है जिसको जैसे चाहो वैसे प्रयोग में लाओ। प्यास लगे ,लू लग जाय तो घोल के पी लो इससे बढ़िया कोल्ड ड्रिंक नहीं , भूख लगे तो पानी में मिक्स कर खा लो नूडल्स से भी कम समय में तैयार है और अगर समय हो तो लिट्टी बनाकर या पूड़ी में भरकर खाया जा सकता है गारंटी के साथ घंटों आपको भूख नहीं लगने देगा।
इस देशी खाद्य पर हुए रिसर्च ने इसको बेहतरीन फ़ास्ट फ़ूड माना है कुछ न्यूट्रिशनिस्ट इसे सुपर फ़ूड कहने से नहीं चूकते। इंस्टैंट एनर्जी के साथ साथ प्रोटीन , कैल्शियम, मैग्नीशियम , आयरन और फाइबर का एक बेहतरीन स्रोत इसे माना गया है। पेय पदार्थ के रूप में इसकी तासीर ठंडी होती है इसलिए लू से बचाता है। वजन घटाने ,कोलेस्ट्रॉल घटाने में इसका प्रयोग बढ़ चला है , डाइबिटीज में भी कारगर है। ऐसे ही गुणों के चलते आजकल ये अमेज़न जैसे प्लेटफॉर्म पर विदेशों तक जा पहुँचा है।वैसे कोई स्टार्ट अप मास्टर देर सबेर गन्ने के जूस और लस्सी की तरह इसे भी कोल्ड ड्रिंक वाली मार्किट तक पहुँचा देगा। फ़िलहाल सतुआ संक्रांति और उसके बाद प्याज-गुड़ और सिरके के साथ सत्तू लपेट कर खाने का मजा लेते रहिये ।
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Saturday, April 9, 2022

Be vegetarian

 अभी हाल ही में बच्चों के पाठ्यक्रम की एक किताब पलट रहा था उसमें भोजन के विविध स्वरुप बताये गए थे और उन सबमें गैर शाकाहारी खाने को प्रमुखता से सचित्र दिखाया गया था। बच्चे ने सवाल भी कर दिया ये आप हमें क्यों नहीं खिलाते ? बताना पड़ा कि उसके पहले इसको मारना पड़ेगा। बच्चे ने कहा सच में ? पूरी बात सुन कर बच्चे ने मना कर दिया ...

मैं सोच में पड़ गया कि क्या हमारी किताबों में भी इसी तरह पढ़ाया गया था तो याद आया नहीं। बहुत सलीके से समझा दिया गया था और हम समझ भी गए थे।
ये उन दिनों की बात थी जब हम निकट के सरकारी प्राइमरी स्कूल जाया करते थे। उमर यही कोई ७-८ साल रही होगी। स्कूल के कस्बे में एक साप्ताहिक बाजार लगा करती थी जो हम बच्चों के लिए भी उत्सव का केंद्र थी। एक दिन बाजार के उस कोने से गुजरे जहाँ कुछ विचित्र सा दिख गया। लकड़ी के तिकोने खूँटों पर उल्टी बकरी लटकी हुई थी जिसका सर गायब था थोड़ी देर समझने में लगा ,लेकिन यह दृश्य इतना भयानक और विचलित करने वाला था कि उस रात भोजन नहीं खाया गया। घर वाले परेशान कि क्या हो गया इसे ? बाल मन इस घटना को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। बहुत दिनों के बाद धीरे -धीरे वो दृश्य ओझल तो हुआ किन्तु आज तक विस्मृत नहीं हुआ जब भी वो रील घूमती है तो मन विचलित हो जाता है. हाँ एक संकल्प जरूर घूम गया कि कभी नहीं । लोगों ने कहा जब बाहर पढ़ने जाओगे तो दिक्कत होगी। खैर ये बात आई गई हो गई। समय का पहिया घूमा और यूनिवर्सिटी की क्लास में एक प्रोफेसर साहब जो बायोकेमिस्ट्री पढ़ाते थे आये । प्रोफेसर साहब के बाल काले और घने थे और हर क्लास को वो ये बताना नहीं भूलते थे कि अंडे खाने से उनके बाल काले और घने हैं अब इस ज्ञान के वशीभूत कई नौजवानों ने मेस में अंडे के लिए लाइन लगाना शुरू कर दिया। बिना अंडे खाये मालवीय भाई साहब के बाल पचास की उमर में भी घने और काले रहे वहीं बहुत से लोग धन और धरम गँवा कर भी बाल नहीं बचा पाए। खैर जब तक यह बात समझ आती तब तक देर हो चुकी थी और प्रोफेसर साहब अपना काम कर चुके थे लेकिन अब पछताए होत क्या ?
हमारे छात्र जीवन में एक दौर चला जब शाकाहारी होना दकियानूसी और पिछड़ेपन की निशानी समझी जाने लगी। लोग अपने बच्चों को दादी -दादा और समाज की नज़र से बचा कर गैर शाकाहारी बनाने लगे कि कहीं वो पिछड़ा न रह जाय। ब्रेन कम विकसित न रह जाय। आज जब यूरोप और अमेरिकन देशों में शाकाहार आंदोलन चरम पर है तो लोग वेगन ढूंढ रहे हैं और इस बीच हम नकल के चक्कर में बेगाने हो गए हैं।
खैर फिर उसी बिंदु पर लौट के आता हूँ जो किताब में सचित्र छपा था। आपको याद दिला दूँ कि जिस तरह हिंदी कविता ' छै साल की छोकरी' का विद्वानों ने विरोध किया उस तरह की एक भी आवाज इस तरह के गैर शाकाहारी ज्ञान गंगा पर किसी ने नहीं उठाई क्योंकि ठप्पा लगने का डर था यानि दकियानूसी का , पिछड़ेपन का और अवैज्ञानिक होने का।
वैसे यह बात सच है कि भोजन नितांत स्वेच्छा का विषय है होना भी चाहिए। हर संस्कृति ने अपने विकास के अनुसार इसे अपनाया लेकिन प्रकृति ने मानव को जिस चेतना के स्तर पर देखने की क्षमता दी वो अद्भुद थी पेड़ पौधे ,पशु पक्षी सब उसके स्वागत के लिए खड़े थे कि उनका कोई अभिभावक धरती पर आने वाला है लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नग्नता आधुनिकता हो सकती है किन्तु सभ्यता का विकास तो कपड़ों से माना गया । बहुत पहले अख़बार में एक कार्टून देखा था जिसमें आदमी पिंजरे में कैद थे और जंगल के जानवर उन्हें बाहर से देख रहे थे , सोचिये अगर ये वास्तव में होता ? आपकी समानता की सीख किताबों में रखी रह जाती।
आज की नई पीढ़ी फिर से सजग और सचेत हो रही है मानवाधिकारों के बाद एक लड़ाई पशु अधिकारों की भी लड़ रही है. समानता और पशु प्रेम की अलख मानव चेतना के उच्च स्तर का संकेत है जब तक हम आप इस तरह के चैप्टर और पाठ्यक्रम पर लिखने और बोलने की हिम्मत करेंगे तब तक पश्चिम से यह क्रांति आ चुकी होगी जो भारत से निकलनी चाहिए थी।

Sunday, November 19, 2017

सह वीर्यं करवावहै-


     हरिद्वार के उपजिलाधिकारी मनीष कुछ नए नए प्रयोग करते रहते हैं मनीष ने अभी हाल में सरकारी आवासीय विद्यालय अलीपुर व बाल कुंज बहादराबाद के बच्चों जिनमे ज्यादातर गरीब घरों से हैं को रॉयल पब्लिक स्कूल रोहालकी के बच्चों के साथ उनके कैम्पस में ट्रेनिंग दिलवायी ।तीनों स्कूलों के बच्चे एक साथ बैठे और आपस मे बातें भी की। इस कार्य मे पहल की रॉयल पब्लिक स्कूल के मालिक रजनीश चौहान ने ।इस पहल का साक्षी मै भी बना । ये प्रयोग इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि बढ़ते "एजुकेशनल डिवाइड " को कैसे कम किया जाय । एक तरफ सुविधा सम्पन्न अप टू डेट पब्लिक स्कूल है दूसरी तरफ बदहाल गरीब तबका ।यदि सारे पब्लिक स्कूल इस राह पर चल निकलें तो शिक्षा और देश की तस्वीर बदल सकती है । ज्यादा न सही पब्लिक स्कूल एक सरकारी स्कूल को तो गोद ले ही सकते हैं -

Friday, February 5, 2016

#Brown rice V/S White Rice

brown rice/white rice
भात की बात -
(Brown rice v/s white rice)
भारतीय भोजन को वैज्ञानिक दृष्टि से संतुलित माना गया है चावल इस भोजन का अनिवार्य अंग है चावल से कार्बोहायड्रेट के अलावा विटामिन बी 1 बी3 व् बी 6 के आलावा मैग्नीशियम फॉस्फोरस आयरन पोटासियम व् सेलेनियम आदि मिलते हैं जो अन्य अनाजों में कम या नहीं मिलते ।इनसे मानसिक विकास व अन्य मेटाबोलिक क्रियाएँ मजबूत रहती हैं और बीमारियों से रक्षा भी होती है पालिस किये हुए चावल में इन विटामिन और मिनरल में से 50 से 90 % हमे नही मिलते और हमारा भोजन असंतुलित हो जाता है जिस से कई बीमारी पनपती हैं न्यूरो संबंधी अधिकांश बीमारी तथा पेट और बीपी शुगर आदि बीमारी को बिना पॉलिश किये चावल Brown rice से रोका जा सकता है शाकाहारी लोगों के लिए यह सर्वोत्तम विकल्प हैै

Monday, December 28, 2015

मतदान की उम्र

जब नयी पीढ़ी कम उम्र में ज्यादा समझदार हो रही है तो मतदान की उम्र भी घटा देनी चाहिए इसे कम से कम 16 साल पे ले आना उचित होगा। 

Thursday, October 8, 2015

Cyber agrishops-

हिंदुस्तान के गांव और किसान जिस दिन मजबूत हो जायेंगे देश अपने आप मजबूत हो जायेगा ।आज भी गांव में किसानों को अपने उत्पादों को स्थानीय व्यापारी को औने पौने दामों में बेचना पड़ता है वहीं शहर में रहने वालों को आढ़तिया या दुकानदार उसी सामान को कई गुना दामों में बेचता है इस किसान और उपभोक्ता के बीच में फायदा उठाने वाले दलालों की चांदी है वही चावल जो किसान 15-17 रुपये में बेचता है वो उपभोक्ता 35 -75 रूपये में खरीदता है सरसों का तेल किसान के घर से 35-40 रूपये में चलकर आपके यहाँ 100 रूपये में पहुँचता है वो भी मिलावट के साथ । यही हाल सब्जियों का है 3 रूपये किलो खीरा 30 में और 6 रूपये किलो भिन्डी 60 रूपये में बिक जाती है आज के ज़माने में जब बहुत कुछ ऑनलाइन है तो क्या किसान और उपभोक्ता सीधे एक दुसरे से नहीं जुड़ सकते? किसानों से यदि उपभोक्ता विशेषकर शहरी समाज सीधे जुड़ जाय तो दलाल अर्थव्यवस्था तो ख़त्म होगी ही किसान और गांव मजबूत होंगे साथ ही उपभोक्ता को भी बहुत राहत होगी। एक उपभोक्ता एक किसान को तो अपना ही सकता है ।शुरू करिये किसी नजदीक के गांव से ।

Wednesday, September 24, 2014

Stop cruelty to animal-

किसी भी धर्म के नाम पर पशु हत्या सभ्य समाज पर प्रश्न चिन्ह है चाहे बकरीद हो या देवी पूजा। किसी कानून के बजाय धार्मिक गुरुओं व् समाज सुधारकों को स्वयं पहल करनी होगी। बेजुबानों की कीमत पर हम त्यौहार क्यों मनाते हैं ? क्या उत्सव का यही एक तरीका बचा है.?