अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा माँगेये तो बस प्यार से जीने का सलीका माँगे...
ऐसी फ़सलों को उगाने की ज़रूरत क्या हैजो पनपने के लिए ख़ून का दरिया मांगे
सिर्फ ख़ुशियों में ही शामिल है ज़माना साराकौन है वो जो मेरे दर्द का हिस्सा मांगे
जुल्म है, ज़हर है, नफ़रत है, जुनूँ है हर सूज़िन्दगी मुझसे कोई प्यार का रिश्ता मांगे
ये तआलुक है कि सौदा है या क्या है आख़रलोग हर जश्न पे मेहमान से पैसा मांगे
कितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ‘अज़ीज़’ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा माँगे- अज़ीज़ आज़ाद
Monday, November 21, 2011
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