जब जीता खुद से ही जीता जब हारा खुद से हार गया
जंगों को जीता कभी- कभी मैं जीती बाजी हार गया
संकल्पों से ही नाता है हमने न चुने विकल्प कभी
जिसने जैसा चाहा उसने बस वैसा अर्थ निकाल गया.
औरों में दम था कहाँ डुबा देते जो मेरी कश्ती को
डूबे हम वहीं जहाँ अपनी मेहनत का पानी सूख गया
गिनती थी कभी शरीफों में चर्चा में हम ही रहते थे
अब खुद में ही आवारा हैं जब से घर-आँगन छूट गया.
इतिहास अनोखा है अपना कागज में कैद नहीं होता
अम्बर के पन्नों में कोई मेरी तस्वीर उतार गया.-ललित
Saturday, October 30, 2010
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