अभी हाल ही में बच्चों के पाठ्यक्रम की एक किताब पलट रहा था उसमें भोजन के विविध स्वरुप बताये गए थे और उन सबमें गैर शाकाहारी खाने को प्रमुखता से सचित्र दिखाया गया था। बच्चे ने सवाल भी कर दिया ये आप हमें क्यों नहीं खिलाते ? बताना पड़ा कि उसके पहले इसको मारना पड़ेगा। बच्चे ने कहा सच में ? पूरी बात सुन कर बच्चे ने मना कर दिया ...
मैं सोच में पड़ गया कि क्या हमारी किताबों में भी इसी तरह पढ़ाया गया था तो याद आया नहीं। बहुत सलीके से समझा दिया गया था और हम समझ भी गए थे।
ये उन दिनों की बात थी जब हम निकट के सरकारी प्राइमरी स्कूल जाया करते थे। उमर यही कोई ७-८ साल रही होगी। स्कूल के कस्बे में एक साप्ताहिक बाजार लगा करती थी जो हम बच्चों के लिए भी उत्सव का केंद्र थी। एक दिन बाजार के उस कोने से गुजरे जहाँ कुछ विचित्र सा दिख गया। लकड़ी के तिकोने खूँटों पर उल्टी बकरी लटकी हुई थी जिसका सर गायब था थोड़ी देर समझने में लगा ,लेकिन यह दृश्य इतना भयानक और विचलित करने वाला था कि उस रात भोजन नहीं खाया गया। घर वाले परेशान कि क्या हो गया इसे ? बाल मन इस घटना को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। बहुत दिनों के बाद धीरे -धीरे वो दृश्य ओझल तो हुआ किन्तु आज तक विस्मृत नहीं हुआ जब भी वो रील घूमती है तो मन विचलित हो जाता है. हाँ एक संकल्प जरूर घूम गया कि कभी नहीं । लोगों ने कहा जब बाहर पढ़ने जाओगे तो दिक्कत होगी। खैर ये बात आई गई हो गई। समय का पहिया घूमा और यूनिवर्सिटी की क्लास में एक प्रोफेसर साहब जो बायोकेमिस्ट्री पढ़ाते थे आये । प्रोफेसर साहब के बाल काले और घने थे और हर क्लास को वो ये बताना नहीं भूलते थे कि अंडे खाने से उनके बाल काले और घने हैं अब इस ज्ञान के वशीभूत कई नौजवानों ने मेस में अंडे के लिए लाइन लगाना शुरू कर दिया। बिना अंडे खाये मालवीय भाई साहब के बाल पचास की उमर में भी घने और काले रहे वहीं बहुत से लोग धन और धरम गँवा कर भी बाल नहीं बचा पाए। खैर जब तक यह बात समझ आती तब तक देर हो चुकी थी और प्रोफेसर साहब अपना काम कर चुके थे लेकिन अब पछताए होत क्या ?
हमारे छात्र जीवन में एक दौर चला जब शाकाहारी होना दकियानूसी और पिछड़ेपन की निशानी समझी जाने लगी। लोग अपने बच्चों को दादी -दादा और समाज की नज़र से बचा कर गैर शाकाहारी बनाने लगे कि कहीं वो पिछड़ा न रह जाय। ब्रेन कम विकसित न रह जाय। आज जब यूरोप और अमेरिकन देशों में शाकाहार आंदोलन चरम पर है तो लोग वेगन ढूंढ रहे हैं और इस बीच हम नकल के चक्कर में बेगाने हो गए हैं।
खैर फिर उसी बिंदु पर लौट के आता हूँ जो किताब में सचित्र छपा था। आपको याद दिला दूँ कि जिस तरह हिंदी कविता ' छै साल की छोकरी' का विद्वानों ने विरोध किया उस तरह की एक भी आवाज इस तरह के गैर शाकाहारी ज्ञान गंगा पर किसी ने नहीं उठाई क्योंकि ठप्पा लगने का डर था यानि दकियानूसी का , पिछड़ेपन का और अवैज्ञानिक होने का।
वैसे यह बात सच है कि भोजन नितांत स्वेच्छा का विषय है होना भी चाहिए। हर संस्कृति ने अपने विकास के अनुसार इसे अपनाया लेकिन प्रकृति ने मानव को जिस चेतना के स्तर पर देखने की क्षमता दी वो अद्भुद थी पेड़ पौधे ,पशु पक्षी सब उसके स्वागत के लिए खड़े थे कि उनका कोई अभिभावक धरती पर आने वाला है लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नग्नता आधुनिकता हो सकती है किन्तु सभ्यता का विकास तो कपड़ों से माना गया । बहुत पहले अख़बार में एक कार्टून देखा था जिसमें आदमी पिंजरे में कैद थे और जंगल के जानवर उन्हें बाहर से देख रहे थे , सोचिये अगर ये वास्तव में होता ? आपकी समानता की सीख किताबों में रखी रह जाती।
आज की नई पीढ़ी फिर से सजग और सचेत हो रही है मानवाधिकारों के बाद एक लड़ाई पशु अधिकारों की भी लड़ रही है. समानता और पशु प्रेम की अलख मानव चेतना के उच्च स्तर का संकेत है जब तक हम आप इस तरह के चैप्टर और पाठ्यक्रम पर लिखने और बोलने की हिम्मत करेंगे तब तक पश्चिम से यह क्रांति आ चुकी होगी जो भारत से निकलनी चाहिए थी।
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