एक कविराज जो कविता सुनाने के लिए लाखों से नीचे इस आधार पर जाने से मना कर देते थे कि इस देश की जनता ने "निराला जी" को गरीबी में मार डाला - उन्होंने चार महीने वोट पाने के लिए फ्री में कविता सुनाई। हालाँकि फ्री कविता के बदले उन्हें वोट बहुत काम मिला। इसके बजाय कहीं मंच पर जाते तो करोड़ों कमाते इतना नुक्सान पता नहीं वे कैसे झेल रहे होंगे ?
Tuesday, May 27, 2014
Friday, May 23, 2014
बिल्ली के घर भैस नहीं लगती-
बिल्लियों की कोई दूध की डेरी नहीं होती- यह हम सबको पता है . कुछेक अपवादों को छोड़कर सभी पार्टियाँ राज्यों के मुखिया बनाने के लिए कुछ दान लेती हैं यह दान करोड़ों में होता है।जरा दिमाग लगाइये कि आंतरिक लोकतंत्र का दावा करने वाले दलों के विधायक के बजाय पार्टी हाई कमान राज्यों का मुखिया क्यों चुनता है- चुनता ही नहीं इस बात का अभय दान भी देता है की कब तक इस पद वह रह सकता है। अगर ऐसा नहीं होता तो नियमानुसार वह अपना इस्तीफा गवर्नर को न देकर पार्टी हाई कमान को क्यों देता है क्योंकि वहां बात मैनेज हो जाती है जो गवर्नर के यहाँ नहीं हो सकती। ये मैनेज करना क्या होता है आप बेहतर जानते हैं अन्यथा क्या कारण है कि विधायकों की नाराज़गी के बावजूद राज्य के मुखिया को आला कमान का अभय दान मिल जाता है। केजरीवाल गलत हो सकते हैं लेकिन आला कमान की भूमिका में रह चुके भाई लोग व् अम्मा जी कब के ईमानदार हो गए जो पूंजीपतियों से करोड़ों लेकर पालिसी तक बदलवा देते हैं। सत्ता में करीबी दखल रखने वाले सोशल साइट्स के दोस्त इसे बखूबी जानते हैं। फ़िलहाल इतना मुझे पता है कि बिल्ली के घर भैंस नहीं लगती। (सत्यमेव जयते )
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