गीता कुरान बांचें कैसे मजहब ही लड़ते जाते हैं
मंदिर मस्जिद की बात नहीं मुल्ला पंडित भिड़ जाते हैं
दस्तूर अजब इस महफ़िल का फनकार यहाँ लुट जाते हैं
ईंटों क़ि सिर्फ हवेली है भुतहे बंगले कहलाते हैं
हम दर्द सहेजे हैं जिनका हमदर्द वही बन जाते हैं
पोथी की चन्द लकीरों में भगवन सिमटते जाते हैं
खुदगर्ज यहाँ कुछ ऐसे हैं नीलाम वतन कर जाते हैं
हाथों पर हाथ धरे बैठे जिन्दा मुर्दे मिल जाते हैं
दिलकश आवाज परिंदों की गुलजार चमन कर जाते हैं
मंदिर मस्जिद दोनों रब के अरदास यही फरमाते हैं
-ललित
Saturday, August 21, 2010
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