जिन्दगी भर हम प्रायः कोई न कोई बोझ ढोते रहते हैं । कुछ बोझ शारीरिक होते हैं तो कुछ मानसिक । शारीरिक बोझ उतने खतरनाक नहीं होते जितने क़ि दिमागी । दिमाग अक्सर किसी न किसी बोझ को ढोता रहता है कभी कैरियर का बोझ तो कभी बैरियर का बोझ , कभी देश का बोझ कभी शेष का बोझ , कभी अपना बोझ तो कभी पराया, बोझ ही बोझ . ये बोझ जिन्न की तरह चढ़ते हैं तो उतरने का नाम ही नहीं लेते । अधिकांश समय इन की चिंता में व्ययतीत होता है .कभी -कभी तो हम इसके आदी हो जाते हैं . बोझ नहीं तो कुछ खाली-खाली सा लगता है .यह जानते हुए क़ि सिर्फ सोचने से कुछ नहीं होने वाला लेकिन संतोष इस बात का रहता है क़ि हम किसी बात को गंभीरता से ले रहे हैं दिमागी बोझ मजा देता रहता है .इस सुखद अहसास के भ्रम बोझ से हमेशा से जुड़े रहे हैं । बोझ का अहसास सुखद भी है और दुखद भी । बोझ सचेत करता रहे तो कारगर और अचेत करता रहे तो सितमगर होता है । लेकिन एक राज की बात यह है क़ि -
"बोझ कितना भी आकर्षक और खूबसूरत क्यों न हो यदि असहनीय हो जाय तो उसे फेंक देना चाहिए ।"- सत्यमेव जयते